मिटता जग में कुछ नहीं, बस परिवर्तित रूप।
कभी ठंढ, बरसात है, कभी छाँव या धूप।।
लोगों के घर तोड़ जो, गर्व करे महसूस।
वो कहलाते बाद में, सामाजिक मनहूस।।
परनिन्दा में रत रहे, हो जाते नाकाम।
अक्सर ऐसे लोग ही, साबित नमकहराम।।
धूल फाँकते शौक से, या सचमुच मजबूर?
खुद सलीब ढोना पड़े, ये जग का दस्तूर।।
नहीं किसी पर जो किया, कहीं कभी उपकार।
लेकिन उनको चाहिए, दुनिया भर से प्यार।।
अक्सर तीखा बोलकर, कहते किया मजाक।
आप अगर चालाक तो, दुनिया भी चालाक।।
हम सबके है सामने, सुमन परीक्षा रोज।
भले आप जो भी करें, करिए खुद की खोज।।
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