जीत झूठ की जहाँ पे होती,
सच को वहीं तड़पते देखा।
गंगाजल अमृत - धारा में,
और गन्दगी बढ़ते देखा।।
जब शिद्दत से लड़े झूठ से,
तब तब झूठ सिहरते देखा।
वैचारिक मुर्दापन से फिर,
नूतन झूठ उभरते देखा।।
जीत झूठ की जब-जब होती,
मानव - मूल्य को मरते देखा।
सुख - सुविधा भी झूठे को ही,
हँस - हँस उसे गुजरते देखा।।
जब जन-जन बेहाल झूठ से,
सच को यार ठहरते देखा।
लोक - चेतना जगती है तब,
फिर से झूठ बिखरते देखा।।
सत्यमेव जयते ही सच है,
सुमन झूठ को मरते देखा।
सच्चाई की राह कठिन पर
सबको यहीं निखरते देखा।।
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