Tuesday, June 8, 2021

नूतन झूठ उभरते देखा

जीत झूठ की जहाँ पे होती, 
सच को वहीं तड़पते देखा।
गंगाजल  अमृत - धारा  में, 
और  गन्दगी  बढ़ते  देखा।।

        जब शिद्दत से लड़े झूठ से, 
        तब तब झूठ सिहरते देखा।
        वैचारिक मुर्दापन  से  फिर,
        नूतन  झूठ  उभरते  देखा।।

जीत झूठ की जब-जब होती,
मानव - मूल्य को मरते देखा।
सुख - सुविधा भी झूठे को ही,
हँस - हँस  उसे गुजरते देखा।।

        जब जन-जन बेहाल झूठ से,
        सच  को  यार  ठहरते देखा।
        लोक - चेतना जगती है तब,
        फिर  से झूठ बिखरते देखा।।

सत्यमेव जयते  ही  सच है,
सुमन झूठ  को मरते देखा।
सच्चाई  की राह कठिन पर
सबको यहीं निखरते देखा।।

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