साहिब! हम मूरख, तू ज्ञानी।
फिर कैसे तेरी आँखों का, सूख रहा है पानी।।
साहिब! हम मूरख -----
तुमसे आस लगी तो हमने, सर पे तुझे बिठाया।
पत्थर को भी देव समझकर, दोनों हाथ उठाया।
तुम ठहरे पत्थर के पत्थर, बने रहे अभिमानी।
साहिब! हम मूरख -----
मोह लिया मोहक बातों से, हैं अंदाज निराले।
लेकिन दिखते सच अब तेरे, सभी इरादे काले।
दबा रहे आवाज विरोधी, जो आदत सुल्तानी।
साहिब! हम मूरख -----
वक्त किसी को माफ किया जो, तुमको माफ करेगा?
मानव ही मानवता के सब, कंटक साफ करेगा।
सदियों का ये सुमन सत्य पर, तुम करते नादानी।
साहिब! हम मूरख -----
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