आजकल दिन में अंधेरे, क्या कहें फिर रात की
फख्र से ज्यादा अभी है, फिक्र इस हालात की
गमजदा लोगों को देखा, तो समन्दर डर गया
उसको डर है आँसुओं की, हो रही बरसात की
कोशिशें हैं दहशतों से, कैद दुनिया को करें
हक तो आजादी हमारा, जंग है जज्बात की
डंडे, लाठी, गोलियां भी, कम पड़ेंगी शातिरों
दर्ज इतिहासों में वो, जिसने अमन की बात की
बच गयी इन्सानियत तो, मौत भी मंजूर है
फिर सुमन डोली सजेगी, हो खुशी बारात की
No comments:
Post a Comment