वो तिलस्म अब टूट रहे हैं
जड़ में जिसके झूठ रहे हैं
खेल मदारी उधर दिखाए
इधर जमूरे लूट रहे है
हिस्सेदारी नहीं मिली तो
छुटभैय्ये भी रूठ रहे हैं
बातें करके जनसेवा की
जन-धारा से फूट रहे हैं
सरकारी लाठी से कैसे
प्रतिपक्षी को कूट रहे हैं
दरकिनार भूखों की आहें
मगर बदल वो सूट रहे हैं
हाथ लेखनी तो मशाल भी
रिश्ते सुमन अटूट रहे हैं
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