Sunday, April 3, 2022

हाथ लेखनी तो मशाल भी

वो तिलस्म अब टूट रहे हैं
जड़ में जिसके झूठ रहे हैं

खेल मदारी उधर दिखाए
इधर जमूरे लूट रहे है

हिस्सेदारी नहीं मिली तो
छुटभैय्ये भी रूठ रहे हैं

बातें करके जनसेवा की
जन-धारा से फूट रहे हैं

सरकारी लाठी से कैसे
प्रतिपक्षी को कूट रहे हैं

दरकिनार भूखों की आहें
मगर बदल वो सूट रहे हैं

हाथ लेखनी तो मशाल भी
रिश्ते सुमन अटूट रहे हैं

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