रोग छपासी इस कदर, गिरकर माँगे भीख।।
झट से झुक जाते कहीं, करें नमन, आदाब।
इक मछली ने कर दिया, गन्दा फिर तालाब।।
साहित्यिक संदर्भ में, सब हैं सबके मीत।
नफरत जो बाँटा कभी, अब दिखते भयभीत।।
हँस के जिसके घर गए, दे साहित्यिक शोक।
जो तम खुद साहित्य के, वो बाँटे आलोक।।
कितनी पुस्तक छप गयीं, गिन-गिन करे प्रचार।
जिनके पन्ने जा रहे, ठोंगा के बाजार।।
कहीं किसी को जो कभी, किया नहीं सहयोग।
परजीवी - सा जी रहे, ऐसे घातक लोग।।
लेखन है इक साधना, जिसे साधना काम।
जो चूके उनको सुमन, माया मिली न राम।।
No comments:
Post a Comment