Friday, April 17, 2015

कुछ फर्ज निभाना बाकी है

ऐ वक्त जरा धीरे चलना कुछ फर्ज निभाना बाकी है
इस दुनिया में आया मैं भी यह दर्ज कराना बाकी है
मिलके आपस में जी लें सब कोशिश है ऐसी दुनिया की
जो छुप जाए मुस्कानों में वो दर्द मिटाना बाकी है
बेहतर इंसान बने कैसे सीखा आकर इस दुनिया में
आगे भी पीढी हो बेहतर ये कर्ज चुकाना बाकी है
संकट ऐसा विश्वासों का होते रहते घायल रिश्ते
दुनिया को बचाने की खातिर ये मर्ज भगाना बाकी है
पहचान वक्त की वक्त पे हो ये वक्त सिखाता रोज सुमन
ऐ दुनिया वाले समझ इसे ये अर्ज सुनाना बाकी है

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar said...

सुन्दर रचना

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