Saturday, December 29, 2018

हम में, तुम में फर्क बहुत है

यूँ तो अपना फर्ज बहुत है
पर छुपने को तर्क बहुत है

तुम इस रस्ते, हम उस रस्ते
हम में, तुम में फर्क बहुत है

कौन मानता अपने मन से
भीतर से खुदगर्ज बहुत है

हर सच्चे इन्सान के ऊपर
कर्तव्यों का कर्ज बहुत है

भागो मत कर्तव्य छोड़ के
मानवता का हर्ज बहुत है

नेक किया जो नाम उसीका
इतिहासों में दर्ज बहुत है

तिल तिल नूतन होकर जीना
किया सुमन ये अर्ज बहुत है 

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (31-12-2018) को "जाने वाला साल" (चर्चा अंक-3202) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Jyoti khare said...

वाह बहुत सुंदर गजल
बधाई

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