Wednesday, August 18, 2021

तब प्रीतम बादल यूँ रोता

भीतर शांत  समन्दर  कितना, मगर किनारे शोर बहुत
मिलन प्रेयसी नदी से करने, दिल में चाहत जोर बहुत

ताप  सहन करते-करते जब, प्यास धरा की बढ़ जाती
तब  प्रीतम  बादल  यूँ  रोता,  बरसे  हैं  घनघोर  बहुत

मौसम  या  जीवन  में  पतझड़, देता  इक  संकेत  हमें
झट वसंत आएगा खुद को, मत समझो कमजोर बहुत

नियम बराबर सब कुदरत के, जिसमें पलते, जीते हम
उस कुदरत का शोषण करने, गली-गली में चोर बहुत

व्यथा -कथा से जूझ-जूझकर, सुमन चले उस रस्ते से
बड़े  लोग भी खुशियाँ  पाने, जाते हैं जिस ओर बहुत
सा

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