पहन रहे क्यूँ नागरिक, अभी प्रजा का वेश?
फिर तोता बन बाँचते, शासक का संदेश।।
कहाँ बुझायी जा रही, सभी पेट की आग।
कोयल डर से चुप अभी, खोये मीठे राग।।
बड़ा कहे खुद को सभी, इसमें कहाँ कसूर?
दाना जन को है नहीं, दाना चुगे मयूर।।
दयावान इतने बड़े, सिर्फ झूठ बेबाक।
झट बदले वो डाल को, कौवे सा चालाक।।
जो वैचारिक गन्दगी, बाँट रहे बन सिद्ध।
गिद्ध - दृष्टि यूँ ताज पर, शरमाते हैं गिद्ध।।
छोड़ो गाँव, समाज को, टूट रहा परिवार।
नीलकंठ के देश में, नीलकंठ बेजार।।
रावण या कौरव सदा, सभी काल में कंस।
निबटाना उसको अगर, बनो सुमन खुद हंस।।

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