आस  लगाकर  परिजन  बैठे, नित जिनके सिरहाने में
लेकिन  सब  दिन वही शाम को, जा पहुँचे मयखाने में 
अलग अलग रिश्तों में होते, रूप प्यार के अलग अलग
जरा  फर्क  करना भी  सीखो, प्रीतम  और  दीवाने  में 
चालाकी से चुपके चुपके, शोहरत  लाख करो हासिल
इक  न  इक  दिन  दिख  जाएगा, दाग  तेरे  दस्ताने में
किसे पता कि कल क्या होगा, अरज रहे पीढ़ी खातिर
भला  देर  क्या  लगती  यारों,  दौलत  आने - जाने  में
गर्दिश के दिन कहीं  सहारा, अपनों  जैसा  मिल जाए 
देर लगे  हैं  तब  क्या अपनी, आँखों  को  बरसाने  में
कण कण में भगवान का डेरा, सिखा रहे जो लोगों को
जरा  सोचना  वो  क्यों  अक्सर, मिलते  हैं बुतखाने में 
देख  सुमन  सबके  जीवन की, अपनी अपनी गुत्थी है 
लगे  रहो  बस  तन मन धन से, इसको ही सुलझाने में
 
 
 

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