कभी नहीं मन खाली-खाली
फिर क्पूँ आँगन खाली-खाली
किसी तरह से जो भी अरजा
इक दिन वो धन खाली-खाली
कल के भोजन की चिन्ता में
निंदिया बैरन खाली-खाली
जोर ठंढ है पर कपड़े बिन
कितनों के तन खाली-खाली
क्यों अमीर कहते भारत को
अनगिन निर्धन खाली-खाली
खाते हैं, पर कितने खाते
खाता जन-धन खाली-खाली
सच ही लिखना सदा सुमन तू
मत कर कीर्तन खाली-खाली
1 comment:
वाह
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