Monday, September 27, 2010

झलक

बेबस है जिन्दगी और मदहोश है ज़माना
इक ओर बहते आंसू इक ओर है तराना

लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी से
उसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना

मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना

मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना

मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ में
चाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना

अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगे
मेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना

होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन के
है काम बागवां का हर पल उसे सजाना

18 comments:

संजय भास्‍कर said...

कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

गुड्डोदादी said...

बेबस है जिंदगी और मदहोश है जमाना
इक ओर बहते आंसू इक ओर तराना

एक पंक्ति

आंधी ने रोशनी की हिमायत तो की बहुत,
लेकिन कोई चराग कभी जलने नहीं दिया,

मेरा घर तो जल गया पर शहर बच गया,
अबके भी दीए का साथ हवा ने नहीं दिया,

राजी था मै और मेरा दुश्मन भी सुलह पर,
कुछ दोस्तों ने हाथ उनसे मिलाने नहीं दिया

आपकी कविता में कड़वे सच ही सच हैं जो मन को छू लेने वाले
फिर आपने लिखा
रोटी बड़ी या महजब हमको जरा बताना
पहले दो टूक भर पेट खाना

Kusum Thakur said...

वाह सुमन जी जिस परिस्थिति में आपने यह लिखा है काबिले तारीफ़ है ...!

Udan Tashtari said...

लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी से
उसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना


बहुत खूब कहा! वाह!

गुड्डोदादी said...

लो थरथरा रही है बस तेल की कमी से
अब तक नहीं सुने तो आगे भी ना सुनोगे

पढ़ कर यही निकला
कुछ भी हो इस दुनिया में पर
मेरा अंतिम संस्कार आप ही करोगे

Manish aka Manu Majaal said...

यूँ तो हम आयें है, पहली बार सुमन के दर पे,
गर इतना गज़ब लिखेंगे, क्यों बार बार न आना ?!
बहुत खूब! लिखते रहिये ..

निर्मला कपिला said...

मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना

मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ में
चाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना। बधाई।

रंजना said...

वाह...वाह...वाह...बहुत ही सुन्दर !!!

हर शेर झकझोरती और सीख देती हुई...

बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने भैया...
आनंद आ गया पढ़कर...

kshama said...

मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
Aah ! Kaash ye baat aam aadami samajh sake!
Behtareen gazal kahi hai aapne!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगे
मेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना
--
बहुत सही चित्रण!
--
शानदार गजल!

महेन्‍द्र वर्मा said...

सामयिक और सार्थक पंक्तियां..बहुत बढ़िया

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ी सुन्दर रचना है, मन के भावों को छेड़ती।

चन्द्र कुमार सोनी said...

बहुत अच्छा लिखा हैं आपने.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

Anonymous said...

बेबस है जिंदगी और मदहोश है ज़माना
इक ओर बहते आँसूं इक ओर है तराना
बहुत खूब
हमारा भी सुना था आपने दिले फ़साना
उतर नहीं क्या गमेदिल हो गया पुराना

Anonymous said...

मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ में
चाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना

कितनी ठोस सच्ची बात

यूं मुझे ठोकर मार
आपके पैर में ना खरोंच आए
खुशियाँ ही खुशियाँ
आपके जीवन में आए
ओर मुझ बदनसीब की
छाया भी ना पहुँच पाए
जिंदगी हमारी हो गई पूरी
मिलने की आस है अधूरी

ZEAL said...

मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना


Wonderful creation !

.

आभा said...

वाह बहुत सुन्दर.

Unknown said...

bin aanshu ke trane kaise,,,
har trane ko sjata hai aansu..
joi bhool jae bhle par,,,
khusi aur gam dono mai aate hai aashu.


sabhi pankti ek se badh kar ek dhanyabaad

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